Wednesday, August 15, 2012

सालगिरह आज़ादी की

मुबारक हो सबको 65वी सालगिरह देश के आज़ादी की,

काश के अब भी होती सुध किसी को इस बढती आबादी की।

सपने जो सजोये थे उन वीरों ने बलिदानों के नाम पे,

कब के चकनाचूर हो चुके हैं धर्मनिरपेक्षता के नाम पे।

न तन ढकने को कपडे हैं न हैं रोटियाँ खाने को दो,

हाथों में तिरंगा है और आज़ादी का जश्न मनाते वो।

इस तरफ गरीबी है,सन्नाटा है और झोपड़ियों की कतारें हैं,

उस तरफ पैसे हैं,शोर है और ऐशो आराम सरे हैं।

यह दूरियाँ यह विषमता क्या आज़ादी को दर्शाती हैं ,

हमारे बुद्धिजीवी होने पे क्या यह सवालिया निशान नहीं लगाती हैं?

आज़ादी से राजनीति मिली या मिली राजनीती से आज़ादी हमे,

समझने में जरा वक़्त लगेगा के क्यों मिली यह सिर्फ आधी हमें?

नेताओ के घर में पैसे उगते हैं कुछ ऐसा लगता है,

उनके खाखी के पेची का ठाठ बात तोह कुछ ऐसा ही कहता है।

पर यह पैसे आते कहाँ से हैं और जाते कहाँ, यह बड़ा सवाल है,

आखिर इसी मुद्दे पर पिछले कुछ महीनो से तो उठ रहा बवाल है।

जरा सोचिये की हम अगर आजाद हैं तो कैसे और कितने लोग,

गरीबी और महगाई से लाचार यह जनता या मुट्ठी भर कुछ राजशाही लोग।

सवाल जरा पेचीदा है मगर जवाब तोह हमे ही पाना है,

आखिर सबको मिलके अगले साल भी तो तिरंगा फहराना है।



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