Wednesday, August 22, 2012

पांचवी सालगिरह इंडी ब्लोग्गेर्स की

मुंबई की वो रात कुछ अनोखी थी,
यहाँ के हवाओ में फैली हुयी शोखी थी।

ताज के महल में नायाब लेखकों का था अनूठा संगम,
बाहर बैंड स्टैंड के किनारे हो रही थी बारिश झम झम।

इंतज़ार हो रहा था भारत के दो अनमोल नगीनो का,
विकास और राजीव दिल लूटने वाले थे यहाँ के हसीनो का।

शाम शुरू हुयी पूनम की हँसी और कुछ प्यारी बातों से,
फिर दो "शूरमाओं" और  नए लेखको की मुलाकातों से।

थोड़ी देर के लिए छिड चुका बंद महल में  द्वन्द था,
पुरष्कार पाने वाला हर एक ब्लॉगर अक्लमंद था।

हर किसी के मन में चल रही एक दुविधा थी,
इक तरफ लजीज खाना तो दूसरी ओर तकनीक की सुविधा थी।

नोकिया के अभूतपूर्व  चमत्कार दिखने शुरू हो चुके थे,
एप्स  की गलियों से इंडी ब्लोग्गेर्स के चेहरे खिलने शुरू हो चुके थे।

विकास का कैटवाक किसी मॉडल से कम कहाँ,
पैर रखे उसने यहाँ तो हाथ उसके जाए वहाँ।

राजीव के चुटकुलों से सारा माहौल रंगीन था,
चुटकुले पे दिल खोल के न हँसना जुर्म वहाँ संगीन था।

यूं  हीं रात बढती गयी,बात बढ़ती गयी,
हमारे आपस की मुलाक़ात बढती गयी।

आखिर दौर ख़तम हुआ कुछ लज़ीज़ खाने के साथ,
मिलके केक काटने  और  फोटो  खिचाने  के साथ।

पांचवी सालगिरह इंडी ब्लोग्गेर्स की कुछ ख़ास थी,
ख़ूबियाँ नोकिया के एप्स की आयी हमे रास थी।   

Friday, August 17, 2012

हाल किसानों का

क्या हाल होता होगा बेचारे उन किसानों का ,

प्रकृति ने कही गला तो नहीं घोट दिया उनके अरमानो का।

बूंदे कुछ गिरी और धरती के सीने से निकली एक आह,

सोचा के अब आसमान से होगी जल धारा  प्रवाह।

सूखी पत्तियों के झुलसे चेहरे पर दिखी मुस्कान की इक झलक

तो किसानों ने भी उठा दिए आसमान की ओर  अपने पलक।

उनके आँगन में तितलियों का बनने लगा था डेरा,

नन्हे बच्चों ने भी किलकारियों की धुन को छेड़ा।

पर आने वाले कल के काल को कौन जान पाया है,

धूप, छांव,सूखा,बारिश तो सब ऊपर वाले की माया है।

चंद  दिनों की लुका छिपी थी बारिश की धरती से,

जल्द ही ख़त्म हो गया मेलजोल पानी का परती से।

फिर से उदास हो चुका  चेहरा है बच्चों और नौजवानों का,

सोचता हूँ के क्या हाल हो रहा होगा उन बेचारे किसानो का।




Wednesday, August 15, 2012

सालगिरह आज़ादी की

मुबारक हो सबको 65वी सालगिरह देश के आज़ादी की,

काश के अब भी होती सुध किसी को इस बढती आबादी की।

सपने जो सजोये थे उन वीरों ने बलिदानों के नाम पे,

कब के चकनाचूर हो चुके हैं धर्मनिरपेक्षता के नाम पे।

न तन ढकने को कपडे हैं न हैं रोटियाँ खाने को दो,

हाथों में तिरंगा है और आज़ादी का जश्न मनाते वो।

इस तरफ गरीबी है,सन्नाटा है और झोपड़ियों की कतारें हैं,

उस तरफ पैसे हैं,शोर है और ऐशो आराम सरे हैं।

यह दूरियाँ यह विषमता क्या आज़ादी को दर्शाती हैं ,

हमारे बुद्धिजीवी होने पे क्या यह सवालिया निशान नहीं लगाती हैं?

आज़ादी से राजनीति मिली या मिली राजनीती से आज़ादी हमे,

समझने में जरा वक़्त लगेगा के क्यों मिली यह सिर्फ आधी हमें?

नेताओ के घर में पैसे उगते हैं कुछ ऐसा लगता है,

उनके खाखी के पेची का ठाठ बात तोह कुछ ऐसा ही कहता है।

पर यह पैसे आते कहाँ से हैं और जाते कहाँ, यह बड़ा सवाल है,

आखिर इसी मुद्दे पर पिछले कुछ महीनो से तो उठ रहा बवाल है।

जरा सोचिये की हम अगर आजाद हैं तो कैसे और कितने लोग,

गरीबी और महगाई से लाचार यह जनता या मुट्ठी भर कुछ राजशाही लोग।

सवाल जरा पेचीदा है मगर जवाब तोह हमे ही पाना है,

आखिर सबको मिलके अगले साल भी तो तिरंगा फहराना है।