Friday, April 29, 2011

जिन्दगी

मयस्सर थी जिन्हें दो जून की रोटी नहीं कभी,
आज वही दावत-ए-मुर्ग छोड़ जाते हैं.

तड़पा  करते थे हुस्न के इक दीदार को कभी,
आज अप्सराओ से भी मुह मोड़ जाते हैं.

चाहत थी उन्हें  नर्म आगोश की कभी,
आज दरख़्त पे भी चैन से सो जाते हैं.

खुद को खुद से खुद के लिए करना पड़े अलग,
जिन्दगी में कभी कभी ऐसे भी मोड़ आते हैं.

मेरी ये पहली कविता

मेरी  ये पहली कविता कुछ याद दिलाती है,
बारिश में भींगी भींगी जैसे तू आती है.

मोहक सा चेहरा तेरा कुछ कह कर जाता  है,
सूखे बंजर में भी यह बदरी  सा छाता  है.

तेरे पायल की रुनझुन, संगीत सुनाती है,
झलक तेरी इक देखू तो  मदहोशी छाती है.

तेरे नयनो की भाषा को पढना चाहूं मैं,
पास जो आये मेरे तो कुछ कहना चाहूं मैं.

सपना था प्यारा सा ये अब जान गया हूँ मैं,
अपनी इस वीरानी को पहचान गया हूँ मैं.