Friday, April 29, 2011

जिन्दगी

मयस्सर थी जिन्हें दो जून की रोटी नहीं कभी,
आज वही दावत-ए-मुर्ग छोड़ जाते हैं.

तड़पा  करते थे हुस्न के इक दीदार को कभी,
आज अप्सराओ से भी मुह मोड़ जाते हैं.

चाहत थी उन्हें  नर्म आगोश की कभी,
आज दरख़्त पे भी चैन से सो जाते हैं.

खुद को खुद से खुद के लिए करना पड़े अलग,
जिन्दगी में कभी कभी ऐसे भी मोड़ आते हैं.

1 comment:

  1. dammmm good... finally today i could read it today from my lappy :)

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